श्मशान से अस्पताल तक लौटी अर्थी, सूरत में मौत के बाद काग़ज़ों ने रोकी अंतिम यात्रा, 10 घंटे बाद हुआ अंतिम संस्कार
गुजरात के सूरत से एक ऐसा हैरान कर देने वाला मामला सामने आया है, जहां श्मशान घाट में अंतिम संस्कार की पूरी तैयारी के बाद भी चिता नहीं जली। काग़ज़ों के अभाव में परिजनों को अर्थी पर रखे शव को दोबारा अस्पताल ले जाना पड़ा। अस्पताल में फिर से जांच के बाद महिला को मृत घोषित किया गया और करीब 8–10 घंटे की प्रक्रिया पूरी होने के बाद अंततः अंतिम संस्कार संभव हो सका। इस घटना ने सिस्टम, नियमों और मानवीय संवेदनाओं—तीनों पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
मौत के बाद भी नहीं मिली शांति
यह मामला सूरत के पांडेसरा इलाके के शिव नगर की रहने वाली 57 वर्षीय सुनीता देवी बृजनंदन तांती से जुड़ा है। परिजनों के अनुसार, सुनीता देवी लंबे समय से बीमार थीं और पैरालिसिस से पीड़ित थीं। 13 दिसंबर की सुबह करीब 10 बजे, उन्होंने अपने घर में अंतिम सांस ली। घर में मातम पसरा, परिजनों ने शोक के बीच अंतिम संस्कार की तैयारी की और शव को अर्थी पर सजाकर उमरा श्मशान घाट ले जाया गया।
श्मशान घाट में रोकी गई अंतिम क्रिया
श्मशान घाट पहुंचने पर वहां के संचालकों ने मृत्यु प्रमाण पत्र और अन्य जरूरी दस्तावेज मांगे। परिजनों के पास ये कागजात मौजूद नहीं थे।नियमों का हवाला देते हुए श्मशान घाट प्रशासन ने अंतिम संस्कार से इनकार कर दिया। देखते ही देखते मामला गरमा गया और परिजनों तथा श्मशान कर्मियों के बीच विवाद की स्थिति बन गई।
पुलिस पहुंची, नियमों ने ली मानवता पर बढ़त
मामले की सूचना पुलिस को दी गई। पुलिस मौके पर पहुंची और परिजनों को समझाया कि कानूनी प्रक्रिया के बिना अंतिम संस्कार संभव नहीं है। इसके बाद प्रशासन की सलाह पर परिजनों को वह निर्णय लेना पड़ा, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी—
अर्थी पर रखे शव को दोबारा अस्पताल ले जाना।
अस्पताल में पहुंची अर्थी, हर कोई रह गया सन्न
परिजन शव को सूरत के न्यू सिविल अस्पताल लेकर पहुंचे। जब फूलों से सजी अर्थी को स्ट्रेचर पर अस्पताल परिसर में लाया गया, तो
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डॉक्टर
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नर्सिंग स्टाफ
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और अन्य कर्मचारी
सब हैरान रह गए। अस्पताल के इतिहास में यह शायद पहला मामला था, जब शव श्मशान घाट से वापस जांच के लिए अस्पताल लाया गया।
दोबारा जांच, फिर मृत घोषित
अस्पताल में महिला डॉक्टर ने शव की दोबारा मेडिकल जांच की और औपचारिक रूप से मृत घोषित किया। इसके बाद
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मृत्यु प्रमाण पत्र
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और अन्य आवश्यक कागजात
तैयार किए गए।
इस पूरी प्रक्रिया में करीब 8 से 10 घंटे का समय लग गया।
10 घंटे बाद मिली अंतिम विदाई
दस्तावेज पूरे होने के बाद परिजन शव को फिर से उमरा श्मशान घाट लेकर पहुंचे। इस बार कोई रोक नहीं लगी और विधिवत अंतिम संस्कार किया गया। लेकिन तब तक परिजन मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक रूप से पूरी तरह टूट चुके थे।
पड़ोसी बोले— जानकारी के अभाव में बना हालात
मृतका के पड़ोसी आनंद कुमार जायसवाल ने बताया कि
“नियमों और कागजी प्रक्रिया की जानकारी न होने के कारण यह स्थिति बनी। दुख की घड़ी में अगर सही मार्गदर्शन मिल जाता, तो परिजनों को इतना कष्ट नहीं उठाना पड़ता।”
सवाल जो सिस्टम से पूछे जा रहे हैं
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क्या मौत के बाद भी इंसान को काग़ज़ों का मोहताज होना चाहिए?
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क्या शोक में डूबे परिजनों के लिए कोई आपात मानवीय प्रोटोकॉल नहीं होना चाहिए?
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क्या अस्पताल और श्मशान घाट के बीच बेहतर समन्वय नहीं हो सकता?
सूरत की यह घटना सिर्फ एक खबर नहीं, बल्कि प्रशासनिक प्रक्रियाओं और मानवीय संवेदनाओं के टकराव की दर्दनाक तस्वीर है।एक महिला की मौत के बाद भी उसका परिवार काग़ज़ों की दौड़ में 10 घंटे तक भटकता रहा।यह मामला सिस्टम को यह सोचने पर मजबूर करता है कि—
मौत के बाद कम से कम इंसान को शांति से विदा तो मिलनी ही चाहिए।
क्योंकि अंतिम यात्रा,सबसे मौन होती है,उसे काग़ज़ों के शोर में डूबने नहीं देना चाहिए…






