नियम भुलाकर कमाई का खेल: एआरटीओ–स्कूल प्रबंधन की मिलीभगत में नौनिहालों की ज़िंदगी खतरे में

नियम भुलाकर कमाई का खेल: एआरटीओ–स्कूल प्रबंधन की मिलीभगत में नौनिहालों की ज़िंदगी खतरे में

आर.वी.9 न्यूज़ | संवाददाता, महावीर 


शिक्षा मंदिरों पर मंडरा रहा खतरा: नियम ताक पर, नौनिहाल जोखिम पर!

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा शिक्षा व्यवस्था को सुरक्षित और पारदर्शी बनाने के लिए निर्धारित की गई नियमावली को जिस संवेदनशीलता के साथ लागू किया जाना चाहिए था, उससे बिल्कुल अलग तस्वीर ज़मीन पर दिखाई दे रही है। सरकार के सख्त निर्देशों के बावजूद निजी विद्यालय संचालक और संबंधित विभागों की मिलीभगत बच्चों की सुरक्षा को खुली चुनौती दे रही है। गांवों के कच्चे–पक्के रास्तों पर बिना मानक वाले बैटरी रिक्शों और डग्गामार वाहनों में ठूंस-ठूंस कर बच्चों को स्कूल पहुँचाया जा रहा है। यह दृश्य न केवल भयावह है, बल्कि यह सवाल भी उठाता है कि नियमों को लागू कराने वाले अधिकारी आख़िर किस नींद में हैं?


मासूमों की ज़िंदगी पर “डग्गामार” का कहर

विद्यालयों तक पहुँचने के लिए नौनिहालों को जिन साधनों में बैठाया जाता है, वे किसी भी वक्त हादसे का कारण बन सकते हैं। न सड़क सुरक्षा, न वाहन मानक, न क्षमता नियंत्रण—सब कुछ सिर्फ कमाई के खेल के आगे धरे का धरा रह गया है। इन खतरनाक साधनों में बैठे बच्चों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो मात्र “स्कूल पहुंचाना” जिम्मेदारी समझ ली गई हो, “सुरक्षित पहुंचाना” नहीं।


 कमीशन खोरी का खेल: कौन जिम्मेदार?

शिक्षा विभाग से लेकर एआरटीओ तक, आरोपों की आंच हर स्तर पर पहुंच रही है। सूत्र बताते हैं कि विद्यालय प्रबंधक, परिवहन चालक और विभागीय अधिकारी—इनके बीच चल रही कथित कमीशन खोरी ने सरकारी नियमावली को महज कागज़ी बना दिया है। अगर ऐसा न होता, तो सरकार द्वारा निर्धारित सुरक्षा मानकों के अनुरूप पर्याप्त और सुरक्षित परिवहन व्यवस्था छात्रों को उपलब्ध कराई जाती।


 सरकार की जांच भी ठंडे बस्ते में!

प्राइवेट स्कूलों की मनमानी रोकने के लिए सरकार ने पहले एक बड़ी जांच शुरू की थी। लेकिन जैसे ही जांच की आंच बड़े और प्रभावशाली विद्यालयों तक पहुंची, फाइलें धीरे-धीरे ‘ठंडे बस्ते’ में समा गईं।  जिनके पास पहुंच है, उनके स्कूलों में “चार चांद” लगे हुए हैं; और जिनके पास नहीं है, वे नियमों के नाम पर दबाव झेलते रहते हैं।


कब जागेगा सिस्टम?

अगर यही हालात रहे तो किसी दिन एक बड़ा हादसा हो सकता है, जिसकी कीमत मासूम बच्चों को अपनी सुरक्षा से, और परिवारों को अपनी खुशियों से चुकानी पड़ेगी। यह समय है जब प्रशासन को सिर्फ कागज़ों पर नहीं, ज़मीन पर उतर कर जवाब देना होगा— क्या नौनिहालों की सुरक्षा पैसे के आगे इतनी सस्ती है?


शिक्षा मंदिरों में बच्चे सिर्फ पढ़ने नहीं आते, बल्कि अपने भविष्य की नींव रखने आते हैं। यदि यही भविष्य असुरक्षित साधनों पर टिका होगा तो यह न सिर्फ सरकार की नियमावली का अपमान है, बल्कि समाज के प्रति गुनाह भी। अब सवाल यही है— क्या विभाग और विद्यालय प्रबंधन जिम्मेदारी निभाएंगे, या मासूमों की जिंदगी यूँ ही दांव पर लगती रहेगी?