वंदे मातरम के 150 वर्ष : एक गीत जिसने जन-जन में जगाई आज़ादी की लौ

वंदे मातरम के 150 वर्ष : एक गीत जिसने जन-जन में जगाई आज़ादी की लौ

माँ, मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ — वह तराना जो शब्दों से निकलकर आंदोलन बन गया...

नई दिल्ली, 6 नवम्बर 2025 | विशेष संवाददाता

भारत का हृदय आज एक स्वर में गूंज रहा है — वंदे मातरम! वह स्वर, जिसने कभी गुलामी की जंजीरों में जकड़े भारत के कण-कण में आज़ादी की चिंगारी भरी थी, आज अपने गौरवशाली 150 वर्ष पूरे कर रहा है। 7 नवम्बर 1875 को जब बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की कलम से यह गीत पहली बार बंगाली पत्रिका “बंगदर्शन” में प्रकाशित हुआ, तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यह रचना आने वाले सौ वर्षों में राष्ट्र की आत्मा बन जाएगी।


एक कविता जो बन गई भारत की पहचान

“माँ, मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ” — केवल एक पंक्ति नहीं, यह भारत के हृदय की अनंत श्रद्धा का प्रतीक है। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित वंदे मातरम ने आनंदमठ (1882) के पन्नों से निकलकर पूरे भारत को झकझोर दिया। रवींद्रनाथ टैगोर ने जब 1896 में कांग्रेस अधिवेशन में इसे पहली बार गाया, तो सभागार में उपस्थित हर आत्मा इस गीत के साथ कांप उठी — जैसे भारत माँ के आंचल से नई रोशनी फूट रही हो। इस गीत की पहली धुन जब फिज़ाओं में गूंजी, तो हर भारतीय को लगा मानो उनकी अपनी धरती माँ उन्हें पुकार रही है। यह गीत न केवल साहित्य का शिखर था, बल्कि राष्ट्रवाद का भी उदय — जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी।


जब गीत बना संघर्ष का शंखनाद

1905 का साल… बंगाल का विभाजन… और सड़कों पर गूंजता नारा — “वंदे मातरम!” यही वह क्षण था जब यह गीत एक कविता से निकलकर क्रांति का प्रतीक बन गया। 7 अगस्त 1905 को कलकत्ता के टाउन हॉल से हजारों छात्र जब यह नारा लगाते हुए निकले, तो ब्रिटिश सत्ता की नींव हिल गई। वंदे मातरम अब केवल एक गीत नहीं रहा — यह विद्रोह की आवाज़, स्वाभिमान का प्रतीक और मातृभूमि के प्रति भक्ति का धर्म बन गया। उस दौर में बंगाल से लेकर बंबई, पंजाब से लेकर मद्रास तक — “वंदे मातरम” हर सभा, हर जुलूस, हर जेल की दीवारों में गूंजने लगा। ब्रिटिश सरकार ने स्कूलों में इसे गाने पर प्रतिबंध लगाया, छात्रों पर जुर्माने लगाए, और आंदोलनों पर लाठीचार्ज किया — मगर इसकी गूंज को दबा न सकी।
यह गीत अब मौन प्रतिरोध का शस्त्र बन चुका था।


संघर्ष से समर्पण तक : माँ के तीन रूप

आनंदमठ में बंकिम ने माँ के तीन स्वरूप रेखांकित किए —
माँ — जो गौरवशाली और समृद्ध है,
माँ — जो दुखी और धूल में पड़ी है,
 माँ — जो फिर से अपने वैभव में पुनर्स्थापित होगी।

यह त्रयी भारत की यात्रा का रूपक बन गई — गुलामी से जागृति, और जागृति से स्वतंत्रता तक। श्री अरबिंदो ने लिखा था — “बंकिम की कल्पना की माँ के 14 करोड़ हाथों में भिक्षा पात्र नहीं, बल्कि तेज़ तलवारें थीं।” यही विचार आने वाली पीढ़ियों के लिए संकल्प बन गया।


भारत से लेकर बर्लिन तक गूंजा “वंदे मातरम”

1907 में जब मैडम भीकाजी कामा ने जर्मनी के स्टटगार्ट में पहला भारतीय तिरंगा फहराया, तो उस झंडे पर लिखा था — “Vande Mataram.”
इंग्लैंड में जब मदनलाल ढींगरा ने फांसी के फंदे को चूमा, उनके आख़िरी शब्द थे — “वंदे मातरम।” यह नारा अब सीमाओं से परे, विश्व भारतीयता का प्रतीक बन चुका था।


संविधान सभा का निर्णय : बराबर सम्मान, समान गौरव

24 जनवरी 1950 को, संविधान सभा में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने घोषणा की — “वंदे मातरम को राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ के समान सम्मान और दर्जा दिया जाएगा।”
पूरा सदन तालियों से गूंज उठा। इस घोषणा ने यह स्पष्ट कर दिया कि वंदे मातरम केवल अतीत का गीत नहीं, बल्कि भारत के हृदय की धड़कन है।


150वें वर्ष का भव्य उत्सव

भारत सरकार ने इस ऐतिहासिक वर्ष को राष्ट्रीय उत्सव के रूप में मनाने की योजना बनाई है। 7 नवम्बर 2025 को दिल्ली के इंदिरा गांधी स्टेडियम में राष्ट्रीय स्तर का भव्य समारोह आयोजित होगा, जहाँ एक स्मारक डाक टिकट और स्मारक सिक्का जारी किया जाएगा। देशभर में तहसील स्तर तक कार्यक्रम होंगे। आकाशवाणी, दूरदर्शन, और एफएम रेडियो पर “वंदे मातरम” की विशेष श्रृंखलाएँ प्रसारित होंगी। सांस्कृतिक संस्थान और विश्वविद्यालय से लेकर विदेशी भारतीय मिशनों तक — हर जगह माँ भारती को समर्पित संध्या आयोजित की जाएगी।

“वंदे मातरम: धरती माँ को सलाम” शीर्षक से पेड़ लगाने के अभियान, सड़कों पर चित्र प्रदर्शनी और सोशल मीडिया पर 25 लघु फिल्में भी इस उत्सव का हिस्सा होंगी।
यह सिर्फ एक उत्सव नहीं, मातृभूमि के प्रति नव-संकल्प का पर्व है।


वह स्वर जो अमर रहेगा

150 वर्षों की यह यात्रा — कलम से क्रांति तक, गीत से आंदोलन तक, और आंदोलन से राष्ट्रगान के सम्मान तक — “वंदे मातरम” की कहानी है। यह गीत न केवल इतिहास का हिस्सा है, बल्कि आज भी हर भारतीय के हृदय में धड़कती एक भावना है। जब भी कोई भारतीय अपने वतन की मिट्टी को प्रणाम करता है, उसकी आत्मा के किसी कोने से एक स्वर फूटता है —
“वंदे मातरम!”
और यही स्वर, भारत की पहचान है — अमर, अटूट और अद्भुत।